उत्तर प्रदेशधर्ममनोरंजनमहाराजगंजलेख

सावन की रौनकें अब बीते दिनों की बात।

झूले, मल्हार और मायके की मिठास रह गई यादों में सिमट कर।

स्वाभिमान जागरण संवाददाता महराजगंज

कच्चे नीम की निबोरी, सावन जल्दी अईयो रे, झूला तो पड़ गए अमवा की डाल पै जी… कभी गांव की गलियों में सावन के महीने में गूंजने वाले ऐसे लोकगीत अब सिर्फ यादों में रह गए हैं। समय के साथ-साथ जीवन की आपाधापी और आधुनिकता की चकाचौंध ने इन लोक परंपराओं को धीरे-धीरे हमारी संस्कृति से दूर कर दिया है। वर्षों पहले सावन का महीना विशेष रूप से महिलाओं के लिए मायके जाने और वहां परिवारजनों से मिलने का सुनहरा अवसर होता था। गांवों में अमरूद, नीम, आम जैसे पेड़ों पर रस्सी के झूले पड़ते थे। महिलाएं समूह बनाकर लोकगीत गाती थीं, हंसी-मजाक करती थीं और झूलों की मस्ती में खो जाती थीं। सावन जैसे त्योहार एक सामाजिक मिलन और सांस्कृतिक समागम का रूप लेते थे। लेकिन आज की भागदौड़ भरी ज़िंदगी और डिजीटल युग में ये दृश्य अब कम ही देखने को मिलते हैं। अधिकांश महिलाएं या तो नौकरी, बच्चों की पढ़ाई, या अन्य जिम्मेदारियों के चलते मायके जा ही नहीं पातीं। अगर जाती भी हैं, तो समय की कमी के कारण बस मुलाकातों और बातचीत में ही त्योहार बीत जाता है। सावन के गीत अब डीजे और मोबाइल की प्लेलिस्ट में कैद होकर रह गए हैं। करीब 25-30 साल पहले तक सावन का महीना सिर्फ झूलों तक सीमित नहीं था। उस समय युवा वर्ग घरों और स्कूलों की छतों पर पतंग उड़ाकर सावन का आनंद लेते थे। बाजारों में घेवर जैसी पारंपरिक मिठाइयों की रौनक रहती थी। आज युवाओं का ध्यान पढ़ाई और करियर की दिशा में केंद्रित है, जिसके कारण पतंगबाजी की परंपरा भी लगभग लुप्त होती जा रही है। हालांकि ग्रामीण क्षेत्रों में कुछ जगहों पर अब भी ये परंपराएं बची हुई हैं। स्कूलों में छात्राएं झूले डालकर अपने त्योहार को मनाने की कोशिश कर रही हैं। लेकिन विशेषज्ञों की मानें तो अगर यही हाल रहा तो आने वाले वर्षों में ये बची-खुची परंपराएं भी इतिहास का हिस्सा बन जाएंगी।

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